विनय के पद explanation (भावार्थ)│Sahitya Sagar - ICSE

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ऐसो कौ उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवे दीन पर,राम सरस कोउ नाहि॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ज्ञानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावण सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा विभीषण कहँ अति सकुच सहित हरि दीन्हीं॥
तुलसीदास सब भांति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तो भजु राम काम सब पूरन करहि कृपानिधि तेरो॥ 

ऐसो कौ उदार जग माहीं....................................कृपानिधि तेरो॥ 

व्याख्या- राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास ने उपर्युक्त पद में अपने अराध्य देव श्रीराम की महिमा का गुणगान किया है। वे कहते हैं कि इस संसार में कोई अन्य श्रीराम के समान उदार नहीं है। अपना बात को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि श्रीराम के अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा नहीं है जो दीन-दुखियों पर बिना सेवा किए ही दया करता हो। भाव यह है कि श्रीराम दीन-दुखियों पर उनके द्वारा सेवा किए जाने के बिना ही कृपा करते हैं। जो गति ज्ञानी मुनियों को योग और वैराग्य जैसे अनेक यत्न करने पर भी प्राप्त नहीं होती, वही गति श्रीराम ने गिद्ध (जटायु) जैसे पक्षी और शबर जाति की स्त्री शबरी को दी। ऐसा करते हुए उन्होंने इसे बहुत बड़ी बात न समझा। जिस संपत्ति को लंकापति रावण ने अपने दस सिरों को शिव पर चढ़ाने के बाद प्राप्त किया था, उसी संपत्ति को अत्यंत संकोच के साथ उन्होंने विभीषण को प्रदान कर दिया। तुलसीदास कहते हैं कि हे मन! यदि तू सब प्रकार के सुख प्राप्त करना चाहता है तो उन सभी की प्राप्ति श्री राम की कृपा से ही संभव है इसलिए तू राम का भजन कर। श्रीराम कृपा के सागर हैं, वे ही हमारी सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं।


जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।1।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं, भए मुद-मंगलकारी।।2।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां लौं।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।3।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे।
जासों होय सनेह राम–पद, एतो मतो हमारो

जाके प्रिय न राम वैदेही .............. एतो मतो हमारो ।

व्याख्या-उपयुक्त पद में महाकवि तुलसीदास यह संकेत करते हैं कि राम-सीता से प्रेम न करने वाले व्यक्ति से हमें किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं रखना चाहिए। वे प्रहलाद, विभीषण, भरत तथा ब्रज की स्त्रियों के उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि जिस व्यक्ति को श्रीराम-सीता के प्रति अनुराग नहीं है, चाहे वह व्यक्ति अपना कितना ही प्रिय क्यों न हो, उसे परम शत्रु समझकर त्याग देना चाहिए अर्थात् उससे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहिए। कवि कहते हैं कि जैसे प्रहलाद ने प्रभु-भक्ति का विरोध करने वाले अपने पिता हिरण्यकशिपु को त्याग दिया था अर्थात् उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया था। विभीषण ने श्रीराम के विरोधी अपने भाई रावण का परित्याग कर दिया था। भरत ने श्रीराम को वनवास दिलाने वाली अपनी माता कैकेयी को छोड़ दिया था। राजा बलि ने अपने गुरु शुक्राचार्य को छोड़ दिया था तथा ब्रज की गोपियों ने कृष्ण के प्रेम का विरोध करने वाले तथा उसमें बाधक बनने वाले अपने पतियों को त्याग दिया था, वैसे ही हमें भी श्रीराम और सीता से प्रेम न करने वाले व्यक्तियों , यहाँ तक कि अपने उन संबंधियों को भी छोड़ दना चाहिए जो श्रीराम-सीता के विरोधी हों। उपर्युक्त व्यक्तियों ने अपने-अपने प्रियजनों को छोड़ा और उनका कल्याण हुआ। इस संसार में राम के साथ प्रेम का नाता ही सबसे बड़ा नाता है। राम के साथ प्रेम ही सभी प्रकार के संबंधों का आधार होना चाहिए। ऐसे सुरमे या काजल को आँख में लगाने से क्या लाभ जिसका प्रयोग करने पर आँख ही फूट जाए। भाव यह है कि श्रीराम-सीता के विरोधियों से प्रेम करने तथा संबंध बनाने पर हानि ही होती है। तुलसीदास कहते हैं कि उनकी ऐसी सम्मति है कि जिसका राम-सीता से स्नेह है, उसी से परमहित होता है।

अंतर्कथाएँ 

(i) गीध - गीध से कवि का संकेत गिद्धराज जटायु से है। जब रावण सीता का हरण करके आकाश मार्ग से लंका की ओर जा रहा था, तो जटायु ने सीता को पहचान लिया और रावण से उन्हें मुक्त करवाने के लिए उससे युद्ध किया। कुछ देर युद्ध करने के बाद जटायु बुरी तरह घायल होकर गिर पड़ा। जब राम और लक्ष्मण सीता को खोजते-खोजते उस मार्ग से गुजरे तो जटायु ने उन्हें सारी कथा सुनाई और श्रीराम के हाथों में ही अपने प्राण त्याग दिए। श्रीराम ने जटायु को मुक्ति प्रदान की। 

(ii) सबरी- शबरी एक बनवासी जाति शबर की महिला थी। वह श्रीराम की परम भक्त थी। जब राम वन में जाते समय उस रास्ते से गुजरते हुए उसके आश्रम में पहुँचे तो शबरी ने अपने अराध्य श्रीराम को मीठे बेर खिलाए। किंवदंती यह भी है कि शबरी ने प्रत्येक फल को चखकर देखा था कि उनमें कोई खट्टा बेर तो नहीं है। श्रीराम ने अत्यंत स्नेह से उसके बेर खाए और उसे सद्गति प्रदान की। 

(iii) रावण- रावण लंका का राजा था जो महाप्रतापी और महाबलवान था। वह शिव का अनन्य भक्त था। उसने अपने सिर काट-काट कर शिव से अनेक वरदान एवं लंका की संपत्ति प्राप्त की थी। रावण ने सीता का हरण कर लिया था जिसके कारण श्रीराम ने उससे युद्ध किया और उसका वध किया। 

(iv) विभीषण- विभीषण लंका के राजा रावण का छोटा भाई था। रावण अत्यंत अहंकारी, दुष्ट तथा क्रूर था जबकि विभीषण राम का भक्त, चरित्रवान तथा उदार था। विभीषण ने अपने भाई को सीता को वापस करने, तथा श्रीराम की शरण में जाने की सलाह दी थी, पर रावण ने न केवल उसका अपमान किया अपितु उसे लात भी मारी। विभीषण लंका को छोड़कर श्रीराम की शरण में आ गया था। रावण को पराजित करने के बाद जो राम ने विभीषण को लंका की सारी संपत्ति एवं राज्य दे दिया।

(v)वैदेही- वैदेही सीता का ही एक नाम है। विदेह राजा जनक की पुत्री होने के कारण उनका नाम 
वैदेही पड़ा।वैदहा वनवास में भी अपने पति श्रीराम के साथ थी। उसका हरण रावण द्वारा कर लिया गया था। जिसके कारण श्रीराम ने लंकाधिपति रावण का वध किया।

(vi) प्रहलाद- प्रहलाद हिरण्यकशिपु नाम के दैत्य का पुत्र था। हिरण्यकशिपु ने तपस्या करके एक वरदान प्राप्त कर लिया था जिसके कारण वह स्वयं को भगवान समझने लगा था। उसका पुत्र प्रहलाद ईश्वर का भक्त था। हिरण्यकशिपु को प्रहलाद की यह बात पसंद नहीं थी इसलिए उसे ईश्वर-भक्ति से विमुख करने के लिए अनेक यातनाएं दी गईं, पर प्रह्लाद ने प्रभु-भक्ति नहीं छोड़ी। हिरण्यकशिप की बहन होलिका को अग्नि मन जलन का वरदान प्राप्त था। अपने भाई के कहने पर वह प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई। होलिका जल गई। और प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ। भगवान ने नृसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था।

 (vii) भरत- भरत अयोध्या नरेश दशरथ का पुत्र था। कैकेयी उसकी माता थी। कैकेयी ने दशरथ से अपने दो वरदान माँगे- एक में भरत के लिए राजगद्दी और दूसरे में राम को चौदह वर्ष का वनवास। भरत उस समय अपनी ननिहाल में थे। जब वे अयोध्या आए और उन्हें पता चला कि राम के वनवास एवं पिता की मृत्यु का कारण उसकी माता है, तो उन्होंने अपनी माँ का बहिष्कार कर दिया और राजगद्दी पर भी नहीं बैठे।

(vii) बलि गुरु- भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर राजा बलि से तीन पग भूमि माँगी थी। बलि ने उन्हें तीन पग भूमि देने का संकल्प किया। बलि के गुरु शुक्राचार्य को यह ज्ञात हो गया था कि वामन के रूप में स्वयं विष्णु भगवान ही हैं। उन्होंने बलि को इसके प्रति सचेत करते हुए वामन को तीन पग भूमि न देने का आग्रह किया, पर बलि ने गुरु की यह आज्ञा नहीं मानी और सहर्ष एक पग में पृथ्वीलोक, दूसरे में आकाशलोक, तीसरे पग में स्वयं को ही वामन को अर्पण कर दिया। इस प्रकार बलि ने अपने गुरु का परित्याग कर दिया।

(ix) ब्रज बनितह्नि- ब्रज की गोपिकाएँ श्रीकृष्ण से अनुराग रखती थीं तथा उनकी रास-लीलाओं में सम्मिलित होती थीं। उन गोपिकाओं के पतियों को इस बात पर उनसे विरोध था। उन्होंने उनसे रास-लीला में सम्मिलित न होने को कहा, पर कृष्ण भक्त गोपिकाओं ने अपने पतियों की बात नहीं मानी।